जिन मरता नहीं

दिल्ली में लोकसभा चुनाव के लिये देश की सबसे पुरानी और दिल्ली की नयी पार्टी के बीच गठबंधन की बातचीत कई महीने से हो रही है। दिल्ली से लोकसभा की सात सीटें सभी दलों के लिये मायने रखती हैं। केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी इन्हें जीत कर सत्ता के करीब पहुंचना चाहती है तो विपक्षी दल मौजूदा पीएम का दूसरा कार्यकाल नहीं चाहते। किसी भी गठबंधन के लिये न तो कभी इतना समय लगा है और न ही बार बार इंकार के बाद कई बार फिर प्रयास शुरू हुये हैं। इस तरह बार बार गठबंधन का जिन जिंदा हो जाता है। लगता है कि आपस में सीटों के बंटवारे और हरियाणा में भी गठबंधन किये जाने के मुद्दे पर मतभेद हैं। इतने समय तक गठबंधन की कोशिशों को लटकाये जाने से फिलहाल नुकसान तो देश की सबसे पुरानी पार्टी का हुआ है, वह अब तक न तो प्रचार को धार दे सकी है और न ही उसमें आज के दिन एकता दिखायी देती है। उधर नयी पार्टी एक तरफ तो गठबंधन से इंकार करती है औऱ कहती है कि अब इसके लिये समय नहीं बचा तथा दूसरी ओर सातों सीटों पर धुआंधार प्रचार जारी रखे है और साथ ही गठबंधन के नये फार्मूले पर चर्चा करती है। ऐसे में लगता है कि दोनों दलों के बीच आपसी विश्वास विकसित ही नहीं हुआ। देश में आज अगर किसी गठबंधन में शामिल दलों में आपसी व्यावहारिक विश्वास है तो वह केवल बुआ भतीजे के गठबंधन में है। दिल्ली में अगर न न करते गठबंधन हो गया तो मतदान में शेष बचे दिनों में दोनों दलों के बीच शायद ही विश्वास बनें। यह गठबंधन शायद केवल लोकसभा चुनाव के लिये होगा। गठबंधन इस समय दोनों दलों के लिये कुछ हद तक फायदेमंद साबित हो मगर देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिये दीर्घकालिक नुकसान का सबब हो सकता है।   


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